तर्ज,गोविंद हरे गोपाल हरे
निर्बल के प्राण पुकार रहे, जगदीश हरे,जगदीश हरे।
स्वासों के स्वर झंकार रहे,जगदीश हरे जगदीश हरे।
आकाश हिमालय सागर में,पृथ्वी पाताल चराचर में।यह मधुर बोल गुंजार रहे,जगदीश हरे,जगदीश हरे।
जब दया दृष्टि हो जाती है। सूखी खेती हरिआती है।इस आस पे जन उच्चार रहे।जगदीश हरे जगदीश हरे।
सुख दुःख की चिंता है ही नहीं। भय है विश्वास नजाए कहीं। टूटे ना लगा यह तार रहे। जगदीश हरे जगदीश हरे।
तुम हो करुणा के धाम सदा। सेवक यह राधेश्याम सदा। बस इतना बना विचार रहे। जगदीश हरे जगदीश हरे।