मैं कान्हा की कान्हा मेरा कहां तुम जा छिपे मोहन, मिलन को दिल तरसता है। विरह का ये घना बादल, इन आँखो से बरसता है ।।
क्यों नजरो से हुए ओझल, खता क्या थी मेरी मोहन । ये कैसा जाम उलफत का, भरे बिन जो झलकता है।। विरह का ये घना बादल, इन आँखो से बरसता है ।।
ये माना मै नही काबिल, कभी थी तेरी रहमत के। करो थोड़ा करम फिर भी, ये दिल रह रह तरसता है ।। विरह का घना बादल, इन आँखो से बरसता है ।।
ना ठुकराओ मेरे प्यारे, लिपट जाने दो चरणो से तेरे चरणो की धुली से ये दिल थोड़ा संभलता है ।। विरह का ये घना बादल, इन आँखो से बरसता है ।।
लगाकर प्रेम का फंदा, नजर से क्यो हटा डाला जकड़ लो जाल में प्रेमी, दिवाना दिल मचलता है ।। विरह का घना बादल, इन आँखो से बरसता है ।।
कहां तुम जा छिपे “मोहन”, मिलन को दिल तरसता है। विरह का ये घना बादल इन आँखो से बरसता है ।।