सतगुरु है अविनाशी , मुक्ति रहत है दासी
ब्रह्मा जाको पार न पावे , निंरजन करे खवासी ।सतगुरु है अविनाशी , मुक्ति रहत है दासी,
शेष महेश मुख निशदिन गावै , सौ भी पार न पासी
शंकर जाको ध्यान धरत है , कहिये योग अभ्यासी।
चार वेद को भेद न जाणै, खोज खोज खप जासी।सतगुरु है अविनाशी , मुक्ति रहत है दासी
ओंकार में भ्रमता डोले , बिष्णु फिरैं उदासी।
नाम पदार्थ हाथ न आवे ,पड़े काल की फांसी।सतगुरु है अविनाशी , मुक्ति रहत है दासी।
अजर अमर एक प्रेम पुरुष है, वो कहिये फूल सुवास।
कहत कबीर सुणो भाई साधो, अमरापुर के वासी।सतगुरु है अविनाशी , मुक्ति रहत है दासी