तर्ज – ‘दिल दीवाने का डोला,
आराधना आराधना करता हूँ इस , दरबार के लिये
मैंने रंगा केसरी चोला लखदातार के लिये।
हे कलियुग के अवतारी तेरे नाम की महिमा भारी,
तेरे दर पे आन पड़ा हूँ दर्शन का बनके भिखारी,
घुट-घुट कर तरस रहा हूँ … दीदार के लिये,
मैंने रंगा केसरी चोला … लखदातार के लिये ।।
स्वारथ ने मुझको घेरा … लालच ने डाला डेरा,
प्रभु मोह माया में पड़कर … मैं भूल गया दर तेरा,
मुझे अब तो राह दिखादे … भव पार के लिये।
मैंने रंगा केसरी चोला … लखदातार के लिये ।।
ओ बाबा शीश के दानी … तेरी महिमा सबने मानी,
प्यासी आँखों में भरदे … सूरत तेरी मस्तानी,
खाटू में मुझे बुलाले … तेरे प्यार के लिये।
मैंने रंगा केसरी चोला … लखदातार के लिये ।।
वो जीवन भी क्या जीवन … जिसने दरबार ना देखा,
वो ‘स्वामी’ भक्त नहीं है … जिसने माथा नहीं टेका,
मेरा आवागमन मिटा दे … भव पार के लिये।
मैंने रंगा केसरी चोला … लखदातार के लिये ।।